IMPORTANCE OF GEETA

"importance of geeta"

https://fdmyi.blogspot.com/?m=1

वास्तव में श्रीमद्भागवत गीता का महत्व में वाणी द्वारा वर्णन करने के लिए किसी की भी सामर्थ नहीं है। क्योंकि यह एक परम रहस्य में ग्रंथ है।इसमें संपूर्ण वेदों का सार सार संग्रह किया गया है इसकी संस्कृत इतनी सुंदर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है परंतु इसका अर्थ से इतना गंभीर है कि आजीवन निरंतर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अंत नहीं आता। प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एकाग्र चित्त होकर श्रद्धा भक्ति सहित विचार करने से इसके पद पद में परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है भगवान के गुण प्रभाव और मर्म का वर्णन जिस प्रकार इस गीता शास्त्र में किया गया है वैसा अन्य ग्रंथों में मिलना कठिन है क्योंकि प्राय ग्रंथों में कुछ ना कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है भगवान ने श्रीमद्भागवत गीता रूप एक ऐसा अनूपम में शास्त्र कहा है की जिसमें एक भी शब्द सत उपदेश से खाली नहीं है। श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता जी का वर्णन करने के उपरांत कहा है गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंत करण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जोकि स्वयं पदनाभ भगवान श्री विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है। अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है स्वयं श्री भगवान ने भी इसके महत्व का वर्णन किया है गीता शास्त्र में मनुष्य मात्र का अधिकार है चाहे वह किसी भी वर्णाश्रम में स्थित हो परंतु भगवान में श्रद्धालु और भक्ति युक्त अवश्य होना चाहिए क्योंकि भगवान ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के लिए आज्ञा दी है। तथा यह भी कहा है कि स्त्री वैसे सूत्र और पापियों निधि मेरे परायण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं अपने अपने स्वभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं इन सब पर विचार करने से यही ज्ञात होता है कि परमात्मा की प्राप्ति में सभी का अधिकार है परंतु उक्त विषय के मर्म को न समझने के कारण बहुत से मनुष्य जिन्होंने श्री गीता जी का केवल नाम मात्र ही सुना है कह दिया करते हैं कि गीता तो केवल सन्यासियों के लिए ही है वह अपने बालकों को भी इसी भय से गीताजी का अभ्यास नहीं कराते की गीता के ज्ञान से कदाचित लड़का घर छोड़कर सन्यासी ने हो जाए किंतु उनको विचार करना चाहिए कि मोह के कारण छात्र धर्म से विमुख होकर शिक्षा के अन्य से निर्वाह करने के लिए तैयार हुए अर्जुन ने जिस परम रहस्य में गीता के उपदेश से आजीवन ग्रस्त में रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया उस गीता शास्त्र का यह उल्टा परिणाम किस प्रकार हो सकता है अतएव कल्याणकारी अर्थात कल्याण की इच्छा वाले मनुष्य को उचित है कि मुंह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा भक्ति पूर्वक अपने बालकों को अर्थ और भाव के सहित गीता जी का अध्ययन कराएं एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञा अनुसार साधन करने में तत्पर हो जाएं क्योंकि अति दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दुख मुल्क क्षणभंगुर लोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।गीता जी में भगवान ने अपनी प्राप्ति के लिए मुख्य 2 मार्ग बतलाए हैं एक सांख्य योग दूसरा कर्मयोग उनमें प्रथम संपूर्ण पदार्थ मृगतृष्णा के जल की भांति अथवा स्वप्न की दृष्टि के सदृश माया में होने से माया के कार्य रुप संपूर्ण गुणों गुणों में बर्तते  हैं । ऐसे समझकर मन इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों मैं करता पन के अभिमान से रहित होना तथा सर्वव्यापी सच्चिदानंद परमात्मा के स्वरूप में एक ही भाव से नित्य स्थिति रहते हुए एक सच्चिदानंद घन वासुदेव के सिवाय अन्य किसी के भी होने पने का भाव में रहना यह तो साथियों का साधन है नंबर दो सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि सिद्धि में समत्व भाव रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा का त्याग कर भगवदगीता आज्ञा अनुसार केवल भगवान के लिए ही सब कर्मों का आचरण करना तथा श्रद्धा भक्ति पूर्वक मन वाणी और शरीर से सब प्रकार भगवान के चरणों का नाम गुण और प्रभाव सहित उनके स्वरूप का निरंतर चिंतन करना यह कर्म योग का साधन है उक्त दोनों साधनों का परिणाम एक होने के कारण वे वास्तव में अभिन्न माने गए हैं परंतु साधन काल में अधिकारी भेद से दोनों का भेद होने के कारण दोनों मार्ग भिन्न-भिन्न बतलाए गए हैं इसलिए एक पुरुष दोनों मार्गों द्वारा एक काल में नहीं चल सकता जैसे श्री गंगा जी पर जाने के लिए तो मार्ग होते हुए भी एक मनुष्य दोनों मार्गो द्वारा एक काल में नहीं जा सकता उक्त साधनों में कर्म योग का साधन संयास आश्रम में नहीं बन सकता क्योंकि सन्यास आश्रम में कर्मों का स्वरूप से भी त्याग कहा गया है और साथियों का साधन सभी आश्रमों में बन सकता है यदि कहो की सांख्य योग को भगवान ने सन्यास के नाम से कहा है इसलिए उसका सन्यास आश्रम में ही अधिकार है ग्रहस्थ में नहीं ,तो यह कहना ठीक नहीं है।क्योंकि दूसरे अध्याय में श्लोक 11 से 30 तक जो संगठन निष्ठा का उपदेश किया गया है उसके अनुसार भी भगवान ने जगह-जगह अर्जुन को युद्ध करने की योग्यता दिखाई है यदि ग्रहस्थ में सांख्य  योग का अधिकार ही नहीं होता तो भगवान इस प्रकार कहना कैसे बन सकता? हां इतनी विशेषता अवश्य है कि सांख्य मार्ग का अधिकारी देह अभिमान से रहित होना चाहिए। क्योंकि जब तक शरीर में अहंकार रहता है तब तक सांख्य योग का साधन भली प्रकार समझ में नहीं आता। इसी से भगवान ने सांख्य योग को कठिन बतलाया है साधन में शुगम  होने के कारण अर्जुन के प्रति जगह-जगह कहा है कि तू निरन्तर मेरा चिंतन करता हुआ कर्म योग का आचरण कर ।
जिन की आकृति अतिशय शांत है जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं ,जिन की नाभि में कमल है जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं जो आकाश के सदस्य सर्वत्र व्याप्त हैं नील मेघ के  सामान जिनका वर्ण है अतिसुंदर जिनकी संपूर्ण अंग है जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं जो जन्म मरण रूप में का नाश करने वाले हैं ऐसे लक्ष्मीपति कमल नेत्र भगवान श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।ब्रह्मा वरुण,इन्द्र,रुद्र और मरुद्गण स्तोत्रौऺ द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं सामवेद के गाने वाले अंग पद क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिन का ज्ञान करते हैं योगी जन्म ध्यान में स्थित हुए मन से जिनका का दर्शन करते हैं देवता और असुर  जिनके अंत को नहीं जानते उन देव के लिए मेरा नमस्कार है ऐसे परमपिता परमात्मा को मेरा कोटि-कोटि नमन।
       
                         RADHE-KRISHNA
          OM NAMO BHAGVATEVASUDEVAY


Comments

Popular posts from this blog

Diwali Festival

Earn Money Online

Online Business