GEETA PART SIX
"GEETA PART SIX"
इस आर्टिकल में हम गीता के 6 अध्याय का अध्ययन करेंगे जिसमें श्री भगवान, अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि:-
श्री भगवान कृष्ण बोले:-
जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योग्य नहीं है
हे अर्जुन! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।
योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है। और योगारूढ़ को जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वहीं कल्याण में हेतु कहा जाता है।
जिस काल में न तो इंद्रियों के भागों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।
अपने द्वारा, अपना संसार खुद ही उद्धार करे और अपने को अधोगति में ना डाले; क्योंकि मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है। और जिसके द्वारा मन तथा इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।
सर्दी गर्मी और सुख दुख आदि में तथा मान और अपमान में जिसके अंत:करण की वृत्तियां भली-भांति शांत हैं ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंद घन परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है, अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है।
जिसका अन्त:करण ज्ञान विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इंद्रियां भली-भांति जीती हुई है और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर, और स्वर्ण समान है। वह योगी युक्त अर्थात वह भगवत् प्राप्त है ऐसे कहा जाता है।
मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशा रहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगावे।
शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमश: से कूशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊंचा है और न बहुत नीचा है, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके,
उस आसन पर बैठकर चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को बस में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करें।
काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमा कर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ-
ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित भयरहित तथा भली-भांति शांत अंत:करण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझ में चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे।
वश में किए हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझ में रहने वाली परमानंद की पराकाष्ठा शांति को प्राप्त होता है।
हे अर्जुन यह योग ने तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल खाने वाले का, न बहुत शयन करने वाले का तथा न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
अत्यंत वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली भांति स्थित हो जाता है, उस काल में संपूर्ण भोगों से स्प्रहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है।
जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसे ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।
योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है, और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंद घन परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है।।
इंद्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सुक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनंत आनंद है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।
परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थिति योगी बड़े भारी दु:ख से भी चलायमन नहीं होता।
जो दु:खरूप संसार के सहयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जाना चाहिए। वह योग न उकताये हुए अर्थात धैर्य और उत्साह युक्त चित्त से निश्चय पूर्वक करना कर्त्तव्य है।
संकल्प से उत्पन्न होने वाली संपूर्ण कामनाओं को नि:शेषरूप से त्यागकर और मन के द्वारा इंद्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभांति रोककर-
क्रम क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन ना करें।
यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस उस विषय से रोककर यानी हटा कर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करें।
क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत हैं। जो पाप से रहित हैं और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानंद घन ब्रह्मा के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है।
वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनंत आनंद का अनुभव करता है।
सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थितिरूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को संपूर्ण भूतों में स्थित और संपूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।
जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझे वासुदेव के अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।।
जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा वासुदेव को भजता है,वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।।
हे अर्जुन, जो योगी अपनी भांति संपूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दु:खों को भी सब में सम देखता है, वही योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।।
अर्जुन बोले:-
हे मधुसूदन ! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नृत्य स्थिति को नहीं देखता हूं।
क्योंकि हे श्री कृष्ण! ये मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है इसलिए उसका वश में करना मैं वायु को रोकने की भांति अत्यंत दुष्कर मानता हूं।
श्री भगवान बोले!
हे महाबाहो! निसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है,परंतु है कुंती पुत्र अर्जुन यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।
जिसका मन वश में क्या हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सहज है - यह मेरा मत है।
अर्जुन बोले:-
हे श्री कृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है,इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है ,ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।
हे महाबाहो! क्या वह भगवत् प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रय रहित पुरुष छिन्न भिन्न बादल की भांति दोनों ओर से भ्रष्ट हो कर नष्ट तो नहीं हो जाता।
हे श्री कृष्ण मेरे इस संशय को संपूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेयन करने वाला मिलना संभव नहीं है।
श्री भगवान बोले:-
हे पार्थ!उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही। क्योंकि हे प्यारे! आत्मा उद्धार के लिए अर्थात भगवत् प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।
योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।
तथा वैराग्य वान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है। परंतु इस प्रकार का जो यह जन्म है, यह संसार में नि:सन्देह अत्यंत दुर्लभ है।
वहां उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्दिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनंदन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।
वह श्री मानों के घर में जन्म लेनेवाला योग भ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले से अभ्याससे ही नि:सन्देह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है। तथा समबुद्धिरूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है।
परंतु प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में संसिद्द होकर संपूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परम गति को प्राप्त हो जाता है।।
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।
संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझ में लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य हैं।।
OM NAMO BHAGVATE VASUDEVAY
RADHE-KRISHNA RADHE-KRISHNA
इस आर्टिकल में हम गीता के 6 अध्याय का अध्ययन करेंगे जिसमें श्री भगवान, अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि:-
श्री भगवान कृष्ण बोले:-
जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योग्य नहीं है
हे अर्जुन! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।
योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है। और योगारूढ़ को जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वहीं कल्याण में हेतु कहा जाता है।
जिस काल में न तो इंद्रियों के भागों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।
अपने द्वारा, अपना संसार खुद ही उद्धार करे और अपने को अधोगति में ना डाले; क्योंकि मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है। और जिसके द्वारा मन तथा इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।
सर्दी गर्मी और सुख दुख आदि में तथा मान और अपमान में जिसके अंत:करण की वृत्तियां भली-भांति शांत हैं ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंद घन परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है, अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है।
जिसका अन्त:करण ज्ञान विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इंद्रियां भली-भांति जीती हुई है और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर, और स्वर्ण समान है। वह योगी युक्त अर्थात वह भगवत् प्राप्त है ऐसे कहा जाता है।
मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशा रहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगावे।
उस आसन पर बैठकर चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को बस में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करें।
काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमा कर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ-
वश में किए हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझ में रहने वाली परमानंद की पराकाष्ठा शांति को प्राप्त होता है।
हे अर्जुन यह योग ने तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल खाने वाले का, न बहुत शयन करने वाले का तथा न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसे ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।
योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है, और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंद घन परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है।।
इंद्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सुक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनंत आनंद है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।
परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थिति योगी बड़े भारी दु:ख से भी चलायमन नहीं होता।
जो दु:खरूप संसार के सहयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जाना चाहिए। वह योग न उकताये हुए अर्थात धैर्य और उत्साह युक्त चित्त से निश्चय पूर्वक करना कर्त्तव्य है।
संकल्प से उत्पन्न होने वाली संपूर्ण कामनाओं को नि:शेषरूप से त्यागकर और मन के द्वारा इंद्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभांति रोककर-
क्रम क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन ना करें।
यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस उस विषय से रोककर यानी हटा कर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करें।
क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत हैं। जो पाप से रहित हैं और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानंद घन ब्रह्मा के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है।
वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनंत आनंद का अनुभव करता है।
सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थितिरूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को संपूर्ण भूतों में स्थित और संपूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।
जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझे वासुदेव के अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।।
जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा वासुदेव को भजता है,वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।।
हे अर्जुन, जो योगी अपनी भांति संपूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दु:खों को भी सब में सम देखता है, वही योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।।
अर्जुन बोले:-
हे मधुसूदन ! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नृत्य स्थिति को नहीं देखता हूं।
क्योंकि हे श्री कृष्ण! ये मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है इसलिए उसका वश में करना मैं वायु को रोकने की भांति अत्यंत दुष्कर मानता हूं।
श्री भगवान बोले!
हे महाबाहो! निसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है,परंतु है कुंती पुत्र अर्जुन यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।
जिसका मन वश में क्या हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सहज है - यह मेरा मत है।
अर्जुन बोले:-
हे श्री कृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है,इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है ,ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।
हे महाबाहो! क्या वह भगवत् प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रय रहित पुरुष छिन्न भिन्न बादल की भांति दोनों ओर से भ्रष्ट हो कर नष्ट तो नहीं हो जाता।
हे श्री कृष्ण मेरे इस संशय को संपूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेयन करने वाला मिलना संभव नहीं है।
श्री भगवान बोले:-
हे पार्थ!उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही। क्योंकि हे प्यारे! आत्मा उद्धार के लिए अर्थात भगवत् प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।
योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।
तथा वैराग्य वान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है। परंतु इस प्रकार का जो यह जन्म है, यह संसार में नि:सन्देह अत्यंत दुर्लभ है।
वहां उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्दिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनंदन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।
वह श्री मानों के घर में जन्म लेनेवाला योग भ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले से अभ्याससे ही नि:सन्देह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है। तथा समबुद्धिरूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है।
परंतु प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में संसिद्द होकर संपूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परम गति को प्राप्त हो जाता है।।
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।
संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझ में लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य हैं।।
OM NAMO BHAGVATE VASUDEVAY
RADHE-KRISHNA RADHE-KRISHNA
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